अब के बसंत आई तो आँखें उजड़ गईं
सरसों के खेत में कोई पत्ता हरा न था
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जब चौदहवीं का चाँद निकलता दिखाई दे
मिरी भी मान मिरा अक्स मत दिखा मुझ को
जो दिल में उस को बसाए वो और कुछ न करे
पड़ने लगे जो ज़ोर हवस का तो क्या निगाह
एआद-ए-हिकायतें
रोने वालों ने तिरे ग़म को सराहा ही नहीं
प्यार है वो
नज़्म
बदन के लोच तक आज़ाद है वो
किधर जाऊँ कहीं रस्ता नहीं है
देखने निकला हूँ दुनिया को मगर क्या देखूँ