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नज़्म - बिमल कृष्ण अश्क कविता - Darsaal

नज़्म

आशिक़ वो अहल-ए-हवस के बीच में दो एक ऐसी ट्रॉफ़ियाँ थीं

सब को ये मालूम था टीमें बराबरी की रहेंगी

सब बदन के हौसले हैं जेब की कारीगरी है

जो रिटाइर हो गया वो गेरवे कपड़े पहन कर

रूह की माला के इक सौ आठ दाने बेचता है

सब बदन के हौसले थे

पेंशनें तनख़्वाह का अक्सर तिहाई ही रही हैं

और क़ीमत धीरे धीरे उम्र की सूरत फ़लक को छू रही है

एक और नौ की ये निस्बत

पोपले मुँह में कसीली राख ही का ज़ाइक़ा देती रही है

वो ख़ुदा के नेक बंदे हैं कि जिन की जेब में पैसा नहीं है

मुफ़्लिसी के बोर्ड घर घर मुफ़्त बाँटे जा रहे हैं

क़ब्ज़ से बढ़ कर कोई नेमत नहीं है

लड़कियाँ लिपस्टिक सुनो स्कर्टस जींस माँगती हैं

जेब की कारीगरी थी

सब बदन के हौसले थे जेब की कारीगरी थी

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