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जो दिल में उस को बसाए वो और कुछ न करे - बिमल कृष्ण अश्क कविता - Darsaal

जो दिल में उस को बसाए वो और कुछ न करे

जो दिल में उस को बसाए वो और कुछ न करे

वो रूप है कि उसे देखिए तो जी न करे

जो दर्द दिल में उठे आह खींचने से डरे

वो आइना है कि मौज-ए-हवा शिकस्त करे

खिलेंगी राह में इस रात बर्फ़ की कलियाँ

घरों में घूमते फिरते हैं बादलों के परे

हवा उधर की चली भी तो दर्द मर न गया

यही हुआ है कि कुछ ज़ख़्म हो चले हैं मिरे

ये जंगली ये कटीली ये बावरी आँखें

कि जिन से आँख मिलाते हुए हिरन भी डरे

ख़मोश हो भी तो कैसे वो बोलता हुआ जिस्म

जो होंट होंट से चुपके तो आँख बात करे

वफ़ा बने न अगर 'अश्क' राह का पत्थर

हज़ार जिस्म भरे शहर में बने सँवरे

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