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पाबंदियों से अपनी निकलते वो पा न थे - बिलक़ीस ज़फ़ीरुल हसन कविता - Darsaal

पाबंदियों से अपनी निकलते वो पा न थे

पाबंदियों से अपनी निकलते वो पा न थे

सब रास्ते खुले थे मगर हम पे वा न थे

ये और बात शौक़ से हम को सुना गया

फिर भी वही सुनाया सुना इक फ़साना थे

इक आग-साएबान था सर पर तना हुआ

पल पल ज़मीं सरकती थी और हम रवाना थे

दरिया में रह के कोई न भीगे तो किस तरह

हम बे-नियाज़ तेरी तरह ऐ ख़ुदा न थे

हरगिज़ गिला नहीं है कि तू मेहरबाँ न था

कब हम भी अपने आप से बेहद ख़फ़ा न थे

क्यूँ सब्र-आश्ना न हुआ ना-मुराद दिल

तेरे करम के हाथ तो यूँ बे-अता न थे

वो और हम से पूछे कि 'बिल्क़ीस' कुछ तो कह

कम-बख़्त हम कि होश ही अपने बजा न थे

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