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देता था जो साया वो शजर काट रहा है - बिलक़ीस ज़फ़ीरुल हसन कविता - Darsaal

देता था जो साया वो शजर काट रहा है

देता था जो साया वो शजर काट रहा है

ख़ुद अपने तहफ़्फ़ुज़ की वो जड़ काट रहा है

बे-सम्त उड़ानों से पशीमाँ परिंदा

अब अपनी ही मिन्क़ार से पर काट रहा है

महबूस हूँ ग़ारों में मगर आज़र-ए-तख़ईल

चट्टानों में अश्काल-ए-हुनर काट रहा है

इक ज़र्ब-ए-मुसलसल है कि रुकती ही नहीं है

हर तार-ए-नफ़स दर्द-ए-जिगर काट रहा है

है कौन कमीं-गाह में ये कैसे बताऊँ

हर तीर मगर मेरे ही पर काट रहा है

उम्मीद उजाले का लिए तेशा हर इक दिल

हर रात ब-अंदाज़-ए-सहर काट रहा है

करता है फ़ुज़ूँ वहशत-ए-दिल दश्त का मौसम

'बिल्क़ीस' मगर क्या करूँ घर काट रहा है

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