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बदन पे ज़ख़्म सजाए लहू लबादा किया - बिलक़ीस ज़फ़ीरुल हसन कविता - Darsaal

बदन पे ज़ख़्म सजाए लहू लबादा किया

बदन पे ज़ख़्म सजाए लहू लबादा किया

हर एक संग से यूँ हम ने इस्तिफ़ादा किया

है यूँ कि कुछ तो बग़ावत-सिरिश्त हम भी हैं

सितम भी उस ने ज़रूरत से कुछ ज़ियादा किया

हमें तो मौत भी दे कोई कब गवारा था

ये अपना क़त्ल तो बिल-क़स्द बिल-इरादा किया

बस एक जान बची थी छिड़क दी राहों पर

दिल-ए-ग़रीब ने इक एहतिमाम सादा किया

जो जिस जगह के था क़ाबिल उसे वहीं रक्खा

न ज़ियादा कम किया हम ने न कम ज़ियादा किया

बचा लिया है जो सर अपना सख़्त नादिम हैं

मगर ये अपना तहफ़्फ़ुज़ तो बे-इरादा किया

न लौटने का है रस्ता न ठहरने की है जा

किधर का आज जुनूँ ने मिरे इरादा किया

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