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अपनी तो कोई बात बनाए नहीं बनी - बिलक़ीस ज़फ़ीरुल हसन कविता - Darsaal

अपनी तो कोई बात बनाए नहीं बनी

अपनी तो कोई बात बनाए नहीं बनी

कुछ हम न कह सके तो कुछ उस ने नहीं सुनी

यूँ तो चहार सम्त है अपने हिसार-ए-शब

हम तीरगी को छेद के लाते हैं रौशनी

नादीदा मंज़रों से तराशे हैं ख़्वाब ज़ार

कब दर-ख़ुर-ए-निगह कोई मंज़र है दीदनी

ओछा था वार उस का मगर हम न बच सके

किसी ज़हर में बुझाई थी उस शख़्स ने अनी

हर-दिल-अज़ीज़ वो भी है हम भी हैं ख़ुश-मिज़ाज

अब क्या बताएँ कैसे हमारी नहीं बनी

औरों की तरह हम भी मगर झेल जाएँगे

सब ज़िंदगी समझते हैं जिस को वो जाँ-कनी

'बिल्क़ीस' अपनी बात तो सब से अलग रही

ना-गुफ़्तनी सुनी है कही ना-शुनीदनी

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