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तड़ख़न - बिलाल अहमद कविता - Darsaal

तड़ख़न

कोई शीशा चटख़्ता है

किसी बिल्लोर की तड़ख़न मिरे कानों तक आती है

सुतून-ए-उस्तुख़्वाँ जिस पर मिरा बाम-ए-शिकस्ता है यकायक डोल जाता है

मिरी गर्दन से कुछ नीचे जहाँ ये रीढ़ की चोब-ए-सितादा कपकपी में है

वहीं विसवास के और ख़ौफ़ के और यास के जिन्नात वहशत राग में अपना क़दीमी गीत गाते हैं

तनाव इस तरह जैसे तनाब-ए-जान खिंचती हो

दबाव इस तरह का है मैं जैसे क़ुल्ज़ुम-ए-तारीक की गहराइयों में हूँ

कि सब पर ज़ौ-फ़िशाँ सूरज जहाँ साया नहीं करता

सो रंग ओ रौशनी के और हरारत के संदेसे भी नहीं आते

लहू जूँ बहर-ए-आशुफ़्ता सर-ए-उफ़्तां के साहिल से दमादम सर पटख़ता है

कोई शीशा चटख़्ता है

किसी बिल्लोर की तड़ख़न मिरे कानों तक आती है

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TaDKHan In Hindi By Famous Poet Bilal Ahmad. TaDKHan is written by Bilal Ahmad. Complete Poem TaDKHan in Hindi by Bilal Ahmad. Download free TaDKHan Poem for Youth in PDF. TaDKHan is a Poem on Inspiration for young students. Share TaDKHan with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.