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नास्टैल्जिया - बिलाल अहमद कविता - Darsaal

नास्टैल्जिया

वो दिन कितने मुनव्वर थे

किसी को बाज़ुओं में बे-तरह भरने की ख़्वाहिश से

अयाग़-ए-जिस्म-ओ-जाँ इक बे-ख़ुदी में जब लबा-लब था

चनारों के बदन में सुर्ख़-रू मस्ती दहकती थी

कुछ ऐसा हाल बेश-ओ-कम हमारे दिल का भी तब था

वो दिन कितने मुनव्वर थे

कि बचपन की हसीं शामों के साए बात करते थे

तू जैसे दूर उफ़ुक़ क़ुलक़ुल से हँसता था, जहाँ रब था

कि हर लज़्ज़त ज़बाँ को याद के नामे सुनाती थी

कि हर ख़ुश्बू से पैवस्ता कोई पिछ्ला जहाँ जब था

मोहब्बत दिल के ख़ाली दश्त में जब सैर करती थी

सो इस ताराज के आगे हमें कुछ होश ही कब था

ख़ुशी का नर्म-पर ताइर बदन में सरसराता था

तो आँसू भी उमडते थे, ख़ुशी का ये भी इक ढब था

वो दिन कितने मुनव्वर थे

तही-केसा ज़माने सरख़ुशी से जब छलकते थे

भरे दिन जिस से ख़ाली हैं तही कीसों में वो सब था

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