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एक ख़्वाब - बिलाल अहमद कविता - Darsaal

एक ख़्वाब

पुरानी क़ब्रें अधूरे चेहरे उगल रही थीं

अधूरे चेहरे पुरानी क़ब्रों की सर्द-ज़ा भुरभुरी उदासी जो अपने ऊपर गिरा रहे थे

तो आरिज़ ओ चश्म ओ लब की तश्कील हो रही थी

वो एक कुन जो हज़ार सदियों से मुल्तवी था अब उस की तामील हो रही थी

क़ुबूर-ए-ख़स्ता से गाह ख़ेज़ाँ ओ गाह उफ़्तां, हुजूम-ए-इस्याँ

हर एक रिश्ते से, हर तअल्लुक़ से मावरा था

गए दिनों की मोहब्बतों को, रक़ाबतों को, सऊबतों को भुला चुका था

हुजूम अपने अज़ल के मक़्सूम के मुताबिक़

ख़ुद अपने अंजाम के जुनूँ में कशाँ कशाँ राह काटता था

ज़माना अपने जमाल को तर्क कर चुका था

जलाल उस के बुज़ुर्ग चेहरे की हर शिकन में दुबक गया था

बुज़ुर्ग चेहरा, हमेश्गी का क़दीम चेहरा

अज़ल से इस दिन का मुंतज़िर था

कि कब ये अम्बोह-ए-ख़ाकसाराँ

ख़ुद अपने आमाल के खनकते हुए सलासिल में ग़र्क़ आए

गुनाह बरते सवाब पाए

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