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दीवार-ए-काबा 19 नवम्बर 1989 - बिलाल अहमद कविता - Darsaal

दीवार-ए-काबा 19 नवम्बर 1989

तू मुझे गोद में ले के यारों अज़ीज़ों में बाज़ार-ओ-दफ़्तर को जाता

मुझे याद है ये

शहर की नीम तारीक गलियों में अक्सर मैं सुनता था इक डर की चाप अपने पीछे से आती

मेरे बचपन की शफ़्फ़ाफ़ मासूम आँखों में ना-मेहरबाँ जाने पहचाने चेहरों का डर था

मेरे दिल का ये शीशा इक अन-होने डर से तड़ख़ सा गया था कि जिस की सदा तक नहीं थी

ये वो डर था कि जिस की कोई एक तशरीह मुमकिन नहीं थी

मगर मेरे कच्चे से दिल में

एक आसेबी पीपल की जड़ थी मुझ को तू इक दिन इन्ही में अकेला छोड़ देगा

जिस की शाख़ें हिरासाँ निगाहों से निकली वो शाख़ें मुझे बेद-ए-मजनूँ सा लरज़ाए रखतीं

तेरा सीना वो दीवार-ए-काबा था जिस से चिमट कर मैं दुनिया के हर ग़म से बेगाना होता

तेरे मुशफ़िक़ दो लब गोया बाब-ए-हरम थे

वो बोसा नहीं था हलावत का दर इक खुला था

जिस से शीरीं लताफ़त में गूंधी तमाज़त मिरे दिन को ताबाँ मिरी रात को गर्म रखती

डर अँधेरे का डर शहर की तंग-ओ-तारीक गलियों का डर मेरे बचपन का हिस्सा रहा है

डर वो स्कूल के रास्ते में खड़े एक मजहूल इंसाँ का डर जिस को ख़ुद हम से डर था

डर वो मतरूक बालीं पे डेरा किए कुछ चुड़ैलों का डर जो हमेशा का क़िस्सा रहा है

ख़ैर ये डर तो बचपन का हिस्सा हुए बे-मुरव्वत शनासा से चेहरों का डर है अभी भी

मेरे अंदर का सहमा सा बच्चा वो दीवार-ए-काबा अभी ढूँढता है कि जिस में अमाँ थी

आज दफ़्तर सलामत है बाज़ार-ओ-कूचे की रौनक़ वही है

वो दीवार-ए-काबा मगर अब नहीं है

मैं नवम्बर के उस सर्द दिन में ठिठुरता हूँ अब भी कि जब तू अकेला मुझे कर गया था

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