धुँद
जब दिसम्बर में धुँद उतरती है
अपने असरार में लिपटती हुई, तह-ब-तह हम पे फ़ाश होती हुई
ये किसी याद के दिसम्बर से दिल की सड़कों पे आ निकलती है
राह तो राह दिल नहीं मिलता धुँद जब हम में आ ठहरती है
कैफ़ की सुब्ह-ए-ख़ुश-मुक़द्दर में, ये दर-ए-राज़ हम पे खुलता है
जैसे दिल से किसी पयम्बर के, रब की पहली वही गुज़रती है
राह चलते हुए मुसाफ़िर पर यूँ दिसम्बर में धुँद उतरती है
बाग़ भी, राह भी, मुसाफ़िर भी राज़ के इक मक़ाम में चुप हैं
धुँद इन सब से बात करती है और ये एहतिराम में चुप हैं
धुँद में इक नमी का बोसा है
मेरी आसूदगी के हाथों पर एक बिसरी कमी का बोसा है
एक भूली हुई कमी जैसे, धुँद में याद की नमी जैसे
मेरे हाथों में हाथ डाले हुए मेरी आँखों से बात करती है
अपने असरार में लिपटती हुई जब दिसम्बर में धुँद उतरती है
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