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अजल की फूँक मिरे कान में सुनाई दी - बिलाल अहमद कविता - Darsaal

अजल की फूँक मिरे कान में सुनाई दी

अजल की फूँक मिरे कान में सुनाई दी

जब उस ने शब के थके दीप को रिहाई दी

दरून-ए-ख़ाक रहा कारवान-ए-निकहत-ओ-रंग

नुमू ने सब्र किया आख़िरश दुहाई दी

उलझ रहा था अभी ख़्वाब की फ़सील से मैं

कि ना-रसाई ने इक शब मुझे रसाई दी

हवा का सफ़हा-ए-लर्ज़ां बनाने वाले ने

मिज़ा की नोक पे अश्कों की रौशनाई दी

फिर एक शब ये हुआ ख़्वाब के शजर से परे

हज़ार रंग की आवाज़ इक दिखाई दी

अजीब ढंग से तक़सीम-ए-कार की उस ने

सो जिस को दिल न दिया उस को दिलरुबाई दी

सना उसी की जो मुहताज-ए-हर्फ़-ओ-सौत नहीं

कि जिस ने अश्क के लहजे में नम-नवाई दी

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