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उठा के नाज़ से दामन भला किधर को चले - भारतेंदु हरिश्चंद्र कविता - Darsaal

उठा के नाज़ से दामन भला किधर को चले

उठा के नाज़ से दामन भला किधर को चले

इधर तो देखिए बहर-ए-ख़ुदा किधर को चले

मिरी निगाहों में दोनों जहाँ हुए तारीक

ये आप खोल के ज़ुल्फ़-ए-दोता किधर को चले

अभी तो आए हो जल्दी कहाँ है जाने की

उठो न पहलू से ठहरो ज़रा किधर को चले

ख़फ़ा हो किस पे भंवें क्यूँ चढ़ी हैं ख़ैर तो है

ये आप तेग़ पे धर कर जिला किधर को चले

मुसाफ़िरान-ए-अदम कुछ कहो अज़ीज़ों से

अभी तो बैठे थे है है भला किधर को चले

चढ़ी हैं तेवरियाँ कुछ है मिज़ा भी जुम्बिश में

ख़ुदा ही जाने ये तेग़-ए-अदा किधर को चले

गया जो मैं कहीं भूले से उन के कूचे में

तो हँस के कहने लगे हैं 'रसा' किधर को चले

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