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रहे न एक भी बेदाद-गर सितम बाक़ी - भारतेंदु हरिश्चंद्र कविता - Darsaal

रहे न एक भी बेदाद-गर सितम बाक़ी

रहे न एक भी बेदाद-गर सितम बाक़ी

रुके न हाथ अभी तक है दम में दम बाक़ी

उठा दुई का जो पर्दा हमारी आँखों से

तो काबे में भी रहा बस वही सनम बाक़ी

बुला लो बालीं पे हसरत न दिल में मेरे रहे

अभी तलक तो है तन में हमारे दम बाक़ी

लहद पे आएँगे और फूल भी उठाएँगे

ये रंज है कि न उस वक़्त होंगे हम बाक़ी

ये चार दिन के तमाशे हैं आह दुनिया के

रहा जहाँ में सिकंदर न और न जम बाक़ी

तुम आओ तार से मरक़द पे हम क़दम चूमें

फ़क़त यही है तमन्ना तिरी क़सम बाक़ी

'रसा' ये रंज उठाया फ़िराक़ में तेरे

रहे जहाँ में न आख़िर को आह हम बाक़ी

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