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फिर आई फ़स्ल-ए-गुल फिर ज़ख़्म-ए-दिल रह रह के पकते हैं - भारतेंदु हरिश्चंद्र कविता - Darsaal

फिर आई फ़स्ल-ए-गुल फिर ज़ख़्म-ए-दिल रह रह के पकते हैं

फिर आई फ़स्ल-ए-गुल फिर ज़ख़्म-ए-दिल रह रह के पकते हैं

मगर दाग़-ए-जिगर पर सूरत-ए-लाला लहकते हैं

नसीहत है अबस नासेह बयाँ नाहक़ ही बकते हैं

जो बहके दुख़्त-ए-रज़ से हैं वो कब इन से बहकते हैं

कोई जा कर कहो ये आख़िरी पैग़ाम उस बुत से

अरे आ जा अभी दम तन में बाक़ी है सिसकते हैं

न बोसा लेने देते हैं न लगते हैं गले मेरे

अभी कम-उम्र हैं हर बात पर मुझ से झिजकते हैं

वो ग़ैरों को अदा से क़त्ल जब बेबाक करते हैं

तो उस की तेग़ को हम आह किस हैरत से तकते हैं

उड़ा लाए हो ये तर्ज़-ए-सुख़न किस से बताओ तो

दम-ए-तक़दीर गोया बाग़ में बुलबुल चहकते हैं

'रसा' की है तलाश-ए-यार में ये दश्त-पैमाई

कि मिस्ल-ए-शीशा मेरे पाँव के छाले झलकते हैं

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