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दिल आतिश-ए-हिज्राँ से जलाना नहीं अच्छा - भारतेंदु हरिश्चंद्र कविता - Darsaal

दिल आतिश-ए-हिज्राँ से जलाना नहीं अच्छा

दिल आतिश-ए-हिज्राँ से जलाना नहीं अच्छा

ऐ शोला-रुख़ो आग लगाना नहीं अच्छा

किस गुल के तसव्वुर में है ऐ लाला जिगर-ख़ूँ

ये दाग़ कलेजे पे उठाना नहीं अच्छा

आया है अयादत को मसीहा सर-ए-बालीं

ऐ मर्ग ठहर जा अभी आना नहीं अच्छा

सोने दे शब-ए-वस्ल-ए-ग़रीबाँ है अभी से

ऐ मुर्ग़-ए-सहर शोर मचाना नहीं अच्छा

तुम जाते हो क्या जान मिरी जाती है साहिब

ऐ जान-ए-जहाँ आप का जाना नहीं अच्छा

आ जा शब-ए-फ़ुर्क़त में क़सम तुम को ख़ुदा की

ऐ मौत बस अब देर लगाना नहीं अच्छा

पहुँचा दे सबा कूचा-ए-जानाँ में पस-ए-मर्ग

जंगल में मिरी ख़ाक उड़ाना नहीं अच्छा

आ जाए न दिल आप का भी और किसी पर

देखो मिरी जाँ आँख लड़ाना नहीं अच्छा

कर दूँगा अभी हश्र बपा देखियो जल्लाद

धब्बा ये मिरे ख़ूँ का छुड़ाना नहीं अच्छा

ऐ फ़ाख़्ता उस सर्व-ए-सही क़द का हूँ शैदा

कू-कू की सदा मुझ को सुनाना नहीं अच्छा

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