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दश्त-पैमाई का गर क़स्द मुकर्रर होगा - भारतेंदु हरिश्चंद्र कविता - Darsaal

दश्त-पैमाई का गर क़स्द मुकर्रर होगा

दश्त-पैमाई का गर क़स्द मुकर्रर होगा

हर सर-ए-ख़ार पए-आबला नश्तर होगा

मय-कदे से तिरा दीवाना जो बाहर होगा

एक में शीशा और इक हाथ में साग़र होगा

हल्क़ा-ए-चशम-ए-सनम लिख के ये कहता है क़लम

बस कि मरकज़ से क़दम अपना न बाहर होगा

दिल न देना कभी इन संग-दिलों को यारो

चूर होवेगा जो शीशा तह-ए-पत्थर होगा

देख लेता वो अगर रुख़ की तजल्ली तेरे

आइना ख़ाना-ए-मायूसी में शश्दर होगा

चाक कर डालूँगा दामान-ए-कफ़न वहशत से

आस्तीं से न मिरा हाथ जो बाहर होगा

ऐ 'रसा' जैसा है बरगश्ता ज़माना हम से

ऐसा बरगश्ता किसी का न मुक़द्दर होगा

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