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असीरान-ए-क़फ़स सेहन-ए-चमन को याद करते हैं - भारतेंदु हरिश्चंद्र कविता - Darsaal

असीरान-ए-क़फ़स सेहन-ए-चमन को याद करते हैं

असीरान-ए-क़फ़स सेहन-ए-चमन को याद करते हैं

भला बुलबुल पे यूँ भी ज़ुल्म ऐ सय्याद करते हैं

कमर का तेरे जिस दम नक़्श हम ईजाद करते हैं

तो जाँ फ़रमान आ कर मअ'नी ओ बहज़ाद करते हैं

पस-ए-मुर्दन तो रहने दे ज़मीं पर ऐ सबा मुझ को

कि मिट्टी ख़ाकसारों की नहीं बर्बाद करते हैं

दम-ए-रफ़्तार आती है सदा पाज़ेब से तेरी

लहद के ख़स्तगाँ उट्ठो मसीहा याद करते हैं

क़फ़स में अब तो ऐ सय्याद अपना दिल तड़पता है

बहार आई है मुर्ग़ान-ए-चमन फ़रियाद करते हैं

बता दे ऐ नसीम-ए-सुब्ह शायद मर गया मजनूँ

ये किस के फूल उठते हैं जो गुल फ़रियाद करते हैं

मसल सच है बशर की क़दर नेमत ब'अद होती है

सुना है आज तक हम को बहुत वो याद करते हैं

लगाया बाग़बाँ ने ज़ख़्म-ए-कारी दिल पे बुलबुल के

गरेबाँ-चाक ग़ुंचे हैं तो गुल फ़रियाद करते हैं

'रसा' आगे न लिख अब हाल अपनी बे-क़रारी का

ब-रंग-ए-ग़ुंचा-लब मज़मूँ तिरे फ़रियाद करते हैं

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