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आ गई सर पर क़ज़ा लो सारा सामाँ रह गया - भारतेंदु हरिश्चंद्र कविता - Darsaal

आ गई सर पर क़ज़ा लो सारा सामाँ रह गया

आ गई सर पर क़ज़ा लो सारा सामाँ रह गया

ऐ फ़लक क्या क्या हमारे दिल में अरमाँ रह गया

बाग़बाँ है चार दिन की बाग़-ए-आलम में बहार

फूल सब मुरझा गए ख़ाली बयाबाँ रह गया

इतना एहसाँ और कर लिल्लाह ऐ दस्त-ए-जुनूँ

बाक़ी गर्दन में फ़क़त तार-ए-गरेबाँ रह गया

याद आई जब तुम्हारे रूप रौशन की चमक

मैं सरासर सूरत-ए-आईना हैराँ रह गया

ले चले दो फूल भी इस बाग़-ए-आलम से न हम

वक़्त-ए-रहलत हैफ़ है ख़ाली ही दामाँ रह गया

मर गए हम पर न आए तुम ख़बर को ऐ सनम

हौसला अब दिल का दिल ही में मिरी जाँ रह गया

ना-तवानी ने दिखाया ज़ोर अपना ऐ 'रसा'

सूरत-ए-नक़्श-ए-क़दम मैं बस नुमायाँ रह गया

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