ये सूरज कब निकलता है उन्हीं से पूछना होगा
सहर होने से पहले ही जो बिस्तर छोड़ देते हैं
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सब ने होंटों से लगा कर तोड़ डाला है मुझे
सच्चाइयों को बर-सर-ए-पैकार छोड़ कर
कभी सुकूँ कभी सब्र-ओ-क़रार टूटेगा
दानिस्ता जो हो न सके नादानी से हो जाता है
मैं ने सोचा था मुझे मिस्मार कर सकता नहीं
मैं ने माना एक गुहर हूँ फिर भी सदफ़ में हूँ
एक जैसे लग रहे हैं अब सभी चेहरे मुझे
कहीं जैसे मैं कोई चीज़ रख कर भूल जाता हूँ
ख़ुद पर जो ए'तिमाद था झूटा निकल गया
बस ज़रा इक आइने के टूटने की देर थी
ख़ामोशी में चाहे जितना बेगाना-पन हो
हर एक रात में अपना हिसाब कर के मुझे