ये क्या कि रोज़ पहुँच जाता हूँ मैं घर अपने
अब अपनी जेब में अपना पता न रक्खा जाए
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मैं अब जो हर किसी से अजनबी सा पेश आता हूँ
ये क्या कि रोज़ उभरते हो रोज़ डूबते हो
ये सूरज कब निकलता है उन्हीं से पूछना होगा
मिरी ही बात सुनती है मुझी से बात करती है
इतनी सी बात रात पता भी नहीं लगी
ये सब तो दुनिया में होता रहता है
मैं ने सोचा था मुझे मिस्मार कर सकता नहीं
हर घड़ी तेरा तसव्वुर हर नफ़स तेरा ख़याल
पराया लग रहा था जो वही अपना निकल आया
दयार-ए-ज़ात में जब ख़ामुशी महसूस होती है
सच्चाइयों को बर-सर-ए-पैकार छोड़ कर
आईने से पर्दा कर के देखा जाए