वर्ना तो हम मंज़र और पस-मंज़र में उलझे रहते
हम ने भी सच मान लिया जो कुछ दिखलाया आँखों ने
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दयार-ए-ज़ात में जब ख़ामुशी महसूस होती है
ख़ुद पर जो ए'तिमाद था झूटा निकल गया
इस तरह तो और भी दीवानगी बढ़ जाएगी
समुंदरों को भी दरिया समझ रहे हैं हम
उसे इक बुत के आगे सर झुकाते सब ने देखा है
जुस्तुजू मेरी कहीं थी और मैं भटका कहीं
दश्त में उड़ते बगूलों की ये मस्ती एक दिन
याद भी आता नहीं कुछ भूलता भी कुछ नहीं
ये सूरज कब निकलता है उन्हीं से पूछना होगा
सबब ख़ामोशियों का मैं नहीं था
सूरज से उस का नाम-ओ-नसब पूछता था मैं
ये क्या कि रोज़ पहुँच जाता हूँ मैं घर अपने