उसे इक बुत के आगे सर झुकाते सब ने देखा है
वो काफ़िर ही सही पक्का मगर ईमान रखता है
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घर से निकल कर जाता हूँ मैं रोज़ कहाँ
इश्क़ का रोग तो विर्से में मिला था मुझ को
हम काफ़िरों ने शौक़ में रोज़ा तो रख लिया
समुंदरों को भी दरिया समझ रहे हैं हम
फिर वो बे-सम्त उड़ानों की कहानी सुन कर
तू हमेशा माँगता रहता है क्यूँ ग़म से नजात
सबब ख़ामोशियों का मैं नहीं था
कहीं जैसे मैं कोई चीज़ रख कर भूल जाता हूँ
इतना तो समझते थे हम भी उस की मजबूरी
एक नए साँचे में ढल जाता हूँ मैं
रिश्तों के जब तार उलझने लगते हैं
मैं ने माना एक गुहर हूँ फिर भी सदफ़ में हूँ