शायद बता दिया था किसी ने मिरा पता
मीलों मिरी तलाश में रस्ता निकल गया
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हम सराबों में हुए दाख़िल तो ये हम पर खुला
हर घड़ी तेरा तसव्वुर हर नफ़स तेरा ख़याल
हम वो सहरा के मुसाफ़िर हैं अभी तक जिन की
कब तक गर्दिश में रहना है कुछ तो बता अय्याम मुझे
रिश्तों के जब तार उलझने लगते हैं
इक गर्दिश-ए-मुदाम भी तक़दीर में रही
इश्क़ का रोग तो विर्से में मिला था मुझ को
याद भी आता नहीं कुछ भूलता भी कुछ नहीं
उसे इक बुत के आगे सर झुकाते सब ने देखा है
इतनी सी बात रात पता भी नहीं लगी
हम काफ़िरों ने शौक़ में रोज़ा तो रख लिया