सबब ख़ामोशियों का मैं नहीं था
मिरे घर में सभी कम बोलते थे
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दयार-ए-ज़ात में जब ख़ामुशी महसूस होती है
आईने से पर्दा कर के देखा जाए
मिरी ही बात सुनती है मुझी से बात करती है
कितना आसान था बचपन में सुलाना हम को
इक गर्दिश-ए-मुदाम भी तक़दीर में रही
ख़ामोशी में चाहे जितना बेगाना-पन हो
अंधेरा मिटता नहीं है मिटाना पड़ता है
ख़्वाब जीने नहीं देंगे तुझे ख़्वाबों से निकल
मुस्तक़िल रोने से दिल की बे-कली बढ़ जाएगी
कभी सुकूँ कभी सब्र-ओ-क़रार टूटेगा
हर एक रात में अपना हिसाब कर के मुझे
सच्चाइयों को बर-सर-ए-पैकार छोड़ कर