मैं ने माना एक गुहर हूँ फिर भी सदफ़ में हूँ
मुझ को आख़िर यूँ ही घुट कर कब तक रहना है
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हर एक रात में अपना हिसाब कर के मुझे
इस तरह तो और भी दीवानगी बढ़ जाएगी
इतनी सी बात रात पता भी नहीं लगी
कुछ न कुछ सिलसिला ही बन जाता
इक गर्दिश-ए-मुदाम भी तक़दीर में रही
सच्चाइयों को बर-सर-ए-पैकार छोड़ कर
जुस्तुजू मेरी कहीं थी और मैं भटका कहीं
हर घड़ी तेरा तसव्वुर हर नफ़स तेरा ख़याल
कभी सुकूँ कभी सब्र-ओ-क़रार टूटेगा
बस ज़रा इक आइने के टूटने की देर थी
दानिस्ता जो हो न सके नादानी से हो जाता है
मैं अब जो हर किसी से अजनबी सा पेश आता हूँ