कितना आसान था बचपन में सुलाना हम को
नींद आ जाती थी परियों की कहानी सुन कर
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आँखों में एक बार उभरने की देर थी
सबब ख़ामोशियों का मैं नहीं था
दानिस्ता जो हो न सके नादानी से हो जाता है
इतना तो समझते थे हम भी उस की मजबूरी
ख़्वाहिश-ए-पर्वाज़ है तो बाल-ओ-पर भी चाहिए
फिर वो बे-सम्त उड़ानों की कहानी सुन कर
कभी सुकूँ कभी सब्र-ओ-क़रार टूटेगा
वर्ना तो हम मंज़र और पस-मंज़र में उलझे रहते
इतनी सी बात रात पता भी नहीं लगी
ख़ुद पर जो ए'तिमाद था झूटा निकल गया
उम्मीदों से पर्दा रक्खा ख़ुशियों से महरूम रहीं