ख़ामोशी में चाहे जितना बेगाना-पन हो
लेकिन इक आहट जानी-पहचानी होती है
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ख़्वाहिशों से वलवलों से दूर रहना चाहिए
सबब ख़ामोशियों का मैं नहीं था
हर एक रात में अपना हिसाब कर के मुझे
हम काफ़िरों ने शौक़ में रोज़ा तो रख लिया
क़ुर्बतें नहीं रक्खीं फ़ासला नहीं रक्खा
याद भी आता नहीं कुछ भूलता भी कुछ नहीं
किसी भी सम्त निकलूँ मेरा पीछा रोज़ होता है
अब तो इतनी बार हम रस्ते में ठोकर खा चुके
सच्चाइयों को बर-सर-ए-पैकार छोड़ कर
ख़्वाब जीने नहीं देंगे तुझे ख़्वाबों से निकल
चाहतों के ख़्वाब की ताबीर थी बिल्कुल अलग
मैं अब जो हर किसी से अजनबी सा पेश आता हूँ