कहीं जैसे मैं कोई चीज़ रख कर भूल जाता हूँ
पहन लेता हूँ जब दस्तार तो सर भूल जाता हूँ
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ख़्वाब जीने नहीं देंगे तुझे ख़्वाबों से निकल
क़ुर्बतें नहीं रक्खीं फ़ासला नहीं रक्खा
सूरज से उस का नाम-ओ-नसब पूछता था मैं
मैं अपने लफ़्ज़ यूँ बातों में ज़ाए कर नहीं सकता
कितना आसान था बचपन में सुलाना हम को
ये सब तो दुनिया में होता रहता है
उसे इक बुत के आगे सर झुकाते सब ने देखा है
इस तरह तो और भी दीवानगी बढ़ जाएगी
ख़्वाहिश-ए-पर्वाज़ है तो बाल-ओ-पर भी चाहिए
जाने कितने लोग शामिल थे मिरी तख़्लीक़ में
हमारी बात किसी की समझ में क्यूँ आती
इश्क़ का रोग तो विर्से में मिला था मुझ को