इतनी सी बात रात पता भी नहीं लगी
कब बुझ गए चराग़ हवा भी नहीं लगी
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ख़ामोशी में चाहे जितना बेगाना-पन हो
इस तरह तो और भी दीवानगी बढ़ जाएगी
हमारे हाल पे अब छोड़ दे हमें दुनिया
मैं थोड़ी देर भी आँखों को अपनी बंद कर लूँ तो
समुंदरों को भी दरिया समझ रहे हैं हम
मुस्तक़िल रोने से दिल की बे-कली बढ़ जाएगी
ये क्या कि रोज़ उभरते हो रोज़ डूबते हो
हमारी बात किसी की समझ में क्यूँ आती
एक नए साँचे में ढल जाता हूँ मैं
इश्क़ का रोग तो विर्से में मिला था मुझ को
मैं ने सोचा था मुझे मिस्मार कर सकता नहीं