हमारी बात किसी की समझ में क्यूँ आती
ख़ुद अपनी बात को कितना समझ रहे हैं हम
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इतनी सी बात रात पता भी नहीं लगी
कुछ न कुछ सिलसिला ही बन जाता
ख़्वाहिशों से वलवलों से दूर रहना चाहिए
ख़्वाहिश-ए-पर्वाज़ है तो बाल-ओ-पर भी चाहिए
कभी सुकूँ कभी सब्र-ओ-क़रार टूटेगा
जुस्तुजू मेरी कहीं थी और मैं भटका कहीं
किसी भी सम्त निकलूँ मेरा पीछा रोज़ होता है
ये सूरज कब निकलता है उन्हीं से पूछना होगा
ये सब तो दुनिया में होता रहता है
जाने कितने लोग शामिल थे मिरी तख़्लीक़ में
ये क्या कि रोज़ उभरते हो रोज़ डूबते हो
सवाब है या किसी जनम का हिसाब कोई चुका रहा हूँ