हमारे हाल पे अब छोड़ दे हमें दुनिया
ये बार बार हमें क्यूँ बताना पड़ता है
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हम वो सहरा के मुसाफ़िर हैं अभी तक जिन की
तू हमेशा माँगता रहता है क्यूँ ग़म से नजात
मैं अपने लफ़्ज़ यूँ बातों में ज़ाए कर नहीं सकता
हमारी बात किसी की समझ में क्यूँ आती
सब ने होंटों से लगा कर तोड़ डाला है मुझे
ये क्या कि रोज़ पहुँच जाता हूँ मैं घर अपने
कभी सुकूँ कभी सब्र-ओ-क़रार टूटेगा
ये क्या कि रोज़ उभरते हो रोज़ डूबते हो
ख़्वाहिशों से वलवलों से दूर रहना चाहिए
कब तलक चलना है यूँ ही हम-सफ़र से बात कर
मैं क्या बताऊँ कैसी परेशानियों में हूँ
कहीं जैसे मैं कोई चीज़ रख कर भूल जाता हूँ