घर से निकल कर जाता हूँ मैं रोज़ कहाँ
इक दिन अपना पीछा कर के देखा जाए
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दानिस्ता जो हो न सके नादानी से हो जाता है
दयार-ए-ज़ात में जब ख़ामुशी महसूस होती है
कहीं जैसे मैं कोई चीज़ रख कर भूल जाता हूँ
याद भी आता नहीं कुछ भूलता भी कुछ नहीं
सवाब है या किसी जनम का हिसाब कोई चुका रहा हूँ
हमारी बात किसी की समझ में क्यूँ आती
ख़ामोशी में चाहे जितना बेगाना-पन हो
दश्त में उड़ते बगूलों की ये मस्ती एक दिन
शायद बता दिया था किसी ने मिरा पता
आईने से पर्दा कर के देखा जाए
ख़ुद पर जो ए'तिमाद था झूटा निकल गया