बस ज़रा इक आइने के टूटने की देर थी
और मैं बाहर से अंदर की तरह लगने लगा
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जाने कितने लोग शामिल थे मिरी तख़्लीक़ में
तू हमेशा माँगता रहता है क्यूँ ग़म से नजात
कहीं जैसे मैं कोई चीज़ रख कर भूल जाता हूँ
फिर वो बे-सम्त उड़ानों की कहानी सुन कर
शायद बता दिया था किसी ने मिरा पता
हमारे हाल पे अब छोड़ दे हमें दुनिया
किसी भी सम्त निकलूँ मेरा पीछा रोज़ होता है
मैं ने सोचा था मुझे मिस्मार कर सकता नहीं
रिश्तों के जब तार उलझने लगते हैं
ये सूरज कब निकलता है उन्हीं से पूछना होगा
वो चुप था दीदा-ए-नम बोलते थे
सवाब है या किसी जनम का हिसाब कोई चुका रहा हूँ