आँखों में एक बार उभरने की देर थी
फिर आँसुओं ने आप ही रस्ते बना लिए
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कभी सुकूँ कभी सब्र-ओ-क़रार टूटेगा
उम्मीदों से पर्दा रक्खा ख़ुशियों से महरूम रहीं
बस ज़रा इक आइने के टूटने की देर थी
मुस्तक़िल रोने से दिल की बे-कली बढ़ जाएगी
सूरज से उस का नाम-ओ-नसब पूछता था मैं
हम सराबों में हुए दाख़िल तो ये हम पर खुला
याद भी आता नहीं कुछ भूलता भी कुछ नहीं
कब तलक चलना है यूँ ही हम-सफ़र से बात कर
एक नए साँचे में ढल जाता हूँ मैं
दामन के चाक सीने को बैठे हैं जब भी हम
इक गर्दिश-ए-मुदाम भी तक़दीर में रही