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सब ने होंटों से लगा कर तोड़ डाला है मुझे - भारत भूषण पन्त कविता - Darsaal

सब ने होंटों से लगा कर तोड़ डाला है मुझे

सब ने होंटों से लगा कर तोड़ डाला है मुझे

कूज़ा-गर ने जाने किस मिट्टी से ढाला है मुझे

इस तरह तो और मंज़र की उदासी बढ़ गई

मैं कहीं ख़ुद में निहाँ था क्यूँ निकाला है मुझे

शाख़ पर रह कर कहाँ मुमकिन था मेरा ये सफ़र

अब हवा ने अपने हाथों में सँभाला है मुझे

क्यूँ सजाना चाहते हो अपनी पलकों पर मुझे

राएगाँ सा ख़्वाब हूँ आँखों ने टाला है मुझे

इक ज़रा सी धूप को ले कर ये हंगामा हुआ

मेरी ही परछाइयों ने रौंद डाला है मुझे

जाने कितने चाँद तारे रात के जंगल में थे

याद लेकिन एक जुगनू का उजाला है मुझे

इक धड़कते दिल से मैं ने ख़ुद को पत्थर कर लिया

अब बुतों के साथ ही बस रखने वाला है मुझे

ज़िंदगी ने अपना कोई ख़्वाब बुनने के लिए

एक इक धागे की सूरत खोल डाला है मुझे

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