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क़ुर्बतें नहीं रक्खीं फ़ासला नहीं रक्खा - भारत भूषण पन्त कविता - Darsaal

क़ुर्बतें नहीं रक्खीं फ़ासला नहीं रक्खा

क़ुर्बतें नहीं रक्खीं फ़ासला नहीं रक्खा

एक बार बिछड़े तो राब्ता नहीं रक्खा

इतना तो समझते थे हम भी उस की मजबूरी

इंतिज़ार था लेकिन दर खुला नहीं रक्खा

हम को अपने बारे में ख़ुश-गुमानियाँ क्यूँ हों

हम ने रू-ब-रू अपने आईना नहीं रक्खा

जब पता चला इस में सिर्फ़ ख़ून जलता है

उस के ब'अद सोचों का सिलसिला नहीं रक्खा

हर दफ़ा वही चेहरे बारहा वही बातें

इन पुरानी यादों में कुछ नया नहीं रखा

अपने अपने रस्ते पर सब निकल गए इक दिन

साथ चलने वालों ने हौसला नहीं रक्खा

जब हवा के रुख़ पर ही कश्तियों को बहना था

तुम ने बादबानों को क्यूँ खुला नहीं रक्खा

हम को अपने बारे में हर्फ़ हर्फ़ लिखना था

दास्तान लम्बी थी हाशिया नहीं रक्खा

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