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मैं ने सोचा था मुझे मिस्मार कर सकता नहीं - भारत भूषण पन्त कविता - Darsaal

मैं ने सोचा था मुझे मिस्मार कर सकता नहीं

मैं ने सोचा था मुझे मिस्मार कर सकता नहीं

अक्स तो मुझ पर पलट कर वार कर सकता नहीं

आइना ज़ाहिर तो कर सकता है ख़द्द-ओ-ख़ाल को

आइना एहसास का इज़हार कर सकता नहीं

मेरी चाहत और है मेरे मसाइल और हैं

ख़ुद को मैं हर बात पर तयार कर सकता नहीं

ख़ुद से समझौता किया है ज़िंदगी के नाम पर

इस से बढ़ कर ज़िंदगी को प्यार कर सकता नहीं

या तो अपने जिस्म की हद से निकलना छोड़ दे

साया है तो धूप से इंकार कर सकता नहीं

कश्तियाँ भी चाहिए और नाख़ुदा भी चाहिए

तू समुंदर तैर कर तो पार कर सकता नहीं

इस से बेहतर है कि ये अज़्म-ए-सफ़र ही छोड़ दे

रास्ते को तू अगर हमवार कर सकता नहीं

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