कुछ न कुछ सिलसिला ही बन जाता
कुछ न कुछ सिलसिला ही बन जाता
रेत पर नक़्श-ए-पा ही बन जाता
किस ने काग़ज़ पे लिख दिया मुझ को
इस से बेहतर सदा ही बन जाता
ज़िंदगी की रदीफ़ मुश्किल थी
मैं फ़क़त क़ाफ़िया ही बन जाता
अश्क कुछ देर को ही थम जाते
काम बिगड़ा हुआ ही बन जाता
कश्तियाँ तो ख़ुदा चलाता है
काश मैं नाख़ुदा ही बन जाता
क्या मिला मुझ को नेकियों का सिला
अच्छा होता बुरा ही बन जाता
मंज़िलों की किसे तमन्ना थी
भीड़ में रास्ता ही बन जाता
अब तो बस ये हवा की कोशिश है
एक बादल घना ही बन जाता
मैं भी चेहरा अगर हटा लेता
आइना आइना ही बन जाता
हम ज़रा और सब्र कर लेते
दर्द शायद दवा ही बन जाता
हम से दीवाने गर नहीं होते
शहर ये हादसा ही बन जाता
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