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किसी भी सम्त निकलूँ मेरा पीछा रोज़ होता है - भारत भूषण पन्त कविता - Darsaal

किसी भी सम्त निकलूँ मेरा पीछा रोज़ होता है

किसी भी सम्त निकलूँ मेरा पीछा रोज़ होता है

तआक़ुब में कोई गुमनाम साया रोज़ होता है

किसी इक मोड़ पर हर रोज़ मुझ को मिल ही जाती है

तआरुफ़ ज़िंदगी से ग़ाएबाना रोज़ होता है

मैं इक अंजान मंज़िल के सफ़र पर जब निकलता हूँ

तसव्वुर में कोई मानूस चेहरा रोज़ होता है

यही तन्हाइयाँ हैं जो मुझे तुझ से मिलाती हैं

इन्हीं ख़ामोशियों से तेरा चर्चा रोज़ होता है

ये इक एहसास है ऐसा किसी से कह नहीं सकता

तिरी मौजूदगी का घर में धोका रोज़ होता है

शजर बेचारगी से देखता है इस तमाशा को

जुदा शाख़ों से उस की कोई पत्ता रोज़ होता है

मैं अपने-आप पर भी ख़ुद को ज़ाहिर कर नहीं सकता

मिरे एहसास पर इक सख़्त पहरा रोज़ होता है

ये मंज़र देख कर हैरान रह जाती हैं मौजें भी

यहाँ साहिल पे इक टूटा घरौंदा रोज़ होता है

बहुत दिन से इन आँखों को यही समझा रहा हूँ मैं

ये दुनिया है यहाँ तो इक तमाशा रोज़ होता है

मैं इक किरदार की सूरत कई परतों में जीता हूँ

मिरी बे-चेहरगी का एक चेहरा रोज़ होता है

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