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ख़्वाहिश-ए-पर्वाज़ है तो बाल-ओ-पर भी चाहिए - भारत भूषण पन्त कविता - Darsaal

ख़्वाहिश-ए-पर्वाज़ है तो बाल-ओ-पर भी चाहिए

ख़्वाहिश-ए-पर्वाज़ है तो बाल-ओ-पर भी चाहिए

मैं मुसाफ़िर हूँ मुझे रख़्त-ए-सफ़र भी चाहिए

इस क़दर भी रंज का ख़ूगर नहीं हूँ मैं अभी

रास्ते में धूप हो तो इक शजर भी चाहिए

यूँ मुकम्मल हो नहीं सकता कोई भी अक्स हो

आइना भी चाहिए ज़ौक़-ए-नज़र भी चाहिए

सिर्फ़ साँसों का तसलसुल ही नहीं है ज़िंदगी

अपने होने की हमें कोई ख़बर भी चाहिए

दोस्तों की इस अदा पर हो गया क़ुर्बान मैं

मेरी पगड़ी ले चुके अब मेरा सर भी चाहिए

मुतमइन सहरा में आ के भी नहीं तन्हाइयाँ

शाम होते ही इन्हें दीवार-ओ-दर भी चाहिए

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