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जुस्तुजू मेरी कहीं थी और मैं भटका कहीं - भारत भूषण पन्त कविता - Darsaal

जुस्तुजू मेरी कहीं थी और मैं भटका कहीं

जुस्तुजू मेरी कहीं थी और मैं भटका कहीं

मिल गई मंज़िल मुझे तो खो गया रस्ता कहीं

पूछता रहता हूँ ख़ुद से क्या उसे देखा कहीं

आइने के ज़ावियों में खो गया चेहरा कहीं

मुझ को मत रोको कि मैं इतना थकन से चूर हूँ

फिर ठहर ही जाऊँगा मैं अब अगर ठहरा कहीं

मुद्दतों के ब'अद फिर नम हो गईं आँखें मिरी

फिर मिरे एहसास के पत्थर में दिल धड़का कहीं

टूट कर चाहा तुझे लेकिन ये हसरत रह गई

तुझ से दिल की बात कहते तू अगर मिलता कहीं

मैं किसी सूरत निकल आया हूँ अपनी ज़ात से

डर रहा हूँ मिल न जाए फिर वही दुनिया कहीं

एक ही रफ़्तार से कश्ती को मत खेना यहाँ

वक़्त का दरिया कहीं उथला है तो गहरा कहीं

क्यूँ दिलासा दे रहे हो मुंतशिर करने के ब'अद

टूट कर फिर शाख़ से जुड़ता है इक पत्ता कहीं

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