राह में बैठा हूँ मैं तुम संग-ए-रह समझो मुझे
आदमी बन जाऊँगा कुछ ठोकरें खाने के बाद
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दिल में फिर वस्ल के अरमान चले आते हैं
तुम्हें हम चाहते तो हैं मगर क्या
पढ़े जाओ 'बेख़ुद' ग़ज़ल पर ग़ज़ल
भूले से कहा मान भी लेते हैं किसी का
हो के मजबूर आह करता हूँ
हूरों से न होगी ये मुदारात किसी की
उन्हें तो सितम का मज़ा पड़ गया है
वो सुन कर हूर की तारीफ़ पर्दे से निकल आए
और साक़ी पिला अभी क्या है
तकिया हटता नहीं पहलू से ये क्या है 'बेख़ुद'
आप को रंज हुआ आप के दुश्मन रोए
दी क़सम वस्ल में उस बुत को ख़ुदा की तो कहा