मिला के ख़ाक में सर्मा-ए-दिल-ए-'बेख़ुद'
वो पूछते हैं बताओ ये माल किस का था
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जो तुझे इम्तिहान देता है
नमक भर कर मिरे ज़ख़्मों में तुम क्या मुस्कुराते हो
सब्र आता है जुदाई में न ख़्वाब आता है
उठे तिरी महफ़िल से तो किस काम के उठ्ठे
हो के मजबूर आह करता हूँ
हूरों से न होगी ये मुदारात किसी की
न अरमाँ बन के आते हैं न हसरत बन के आते हैं
कोई इस तरह से मिलने का मज़ा मिलता है
दिल चुरा ले गई दुज़्दीदा-नज़र देख लिया
मुझ को न दिल पसंद न वो बेवफ़ा पसंद
दिल में फिर वस्ल के अरमान चले आते हैं
सख़्त-जाँ हूँ मुझे इक वार से क्या होता है