इजाज़त माँगती है दुख़्त-ए-रज़ महफ़िल में आने की
मज़ा हो शैख़-साहिब कह उठें बे-इख़्तियार आए
Ahmad Faraz
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तिरी तेग़ का लाल कर दूँगा मुँह
बनी थी दिल पे कुछ ऐसी की इज़्तिराब न था
पछताओगे फिर हम से शरारत नहीं अच्छी
नज़र कहीं है मुख़ातब किसी से हैं दिल में
झूटा जो कहा मैं ने तो शर्मा के वो बोले
ख़ुदा रक्खे तुझे मेरी बुराई देखने वाले
आ गए फिर तिरे अरमान मिटाने हम को
सख़्त-जाँ हूँ मुझे इक वार से क्या होता है
चश्म-ए-बद-दूर वो भोले भी हैं नादाँ भी हैं
दिल में फिर वस्ल के अरमान चले आते हैं
दिल तो लेते हो मगर ये भी रहे याद तुम्हें