अब आप कोई काम सिखा दीजिए हम को
मालूम हुआ इश्क़ के क़ाबिल तो नहीं हम
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तुम्हारी याद मेरा दिल ये दिनों चलते पुर्ज़े हैं
सवाल-ए-वस्ल पर कुछ सोच कर उस ने कहा मुझ से
न सही आप हमारे जो मुक़द्दर में नहीं
हो के मजबूर आह करता हूँ
हूरों से न होगी ये मुदारात किसी की
वफ़ा का नाम तो पीछे लिया है
दोनों ही की जानिब से हो गर अहद-ए-वफ़ा हो
माशूक़ हमें बात का पूरा नहीं मिलता
आइना देख के ख़ुर्शीद पे करते हैं नज़र
बात करने की शब-ए-वस्ल इजाज़त दे दो
सौदा-ए-इश्क़ और है वहशत कुछ और शय
आ गए फिर तिरे अरमान मिटाने हम को