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शम-ए-मज़ार थी न कोई सोगवार था - बेख़ुद देहलवी कविता - Darsaal

शम-ए-मज़ार थी न कोई सोगवार था

शम-ए-मज़ार थी न कोई सोगवार था

तुम जिस पे रो रहे थे ये किस का मज़ार था

तड़पूँगा उम्र-भर दिल-ए-मरहूम के लिए

कम-बख़्त ना-मुराद लड़कपन का यार था

सौदा-ए-इश्क़ और है वहशत कुछ और शय

मजनूँ का कोई दोस्त फ़साना-निगार था

जादू है या तिलिस्म तुम्हारी ज़बान में

तुम झूट कह रहे थे मुझे ए'तिबार था

क्या क्या हमारे सज्दे की रुस्वाइयाँ हुईं

नक़्श-ए-क़दम किसी का सर-ए-रहगुज़ार था

इस वक़्त तक तो वज़्अ' में आया नहीं है फ़र्क़

तेरा करम शरीक जो पर्वरदिगार था

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