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दोनों ही की जानिब से हो गर अहद-ए-वफ़ा हो - बेख़ुद देहलवी कविता - Darsaal

दोनों ही की जानिब से हो गर अहद-ए-वफ़ा हो

दोनों ही की जानिब से हो गर अहद-ए-वफ़ा हो

चाहत का मज़ा जब है कि तुम भी मुझे चाहो

ये हम नहीं कहते हैं कि दुश्मन को न चाहो

इस चाह का अंजाम मगर देखिए क्या हो

शमशीर से बढ़ कर हैं हसीनों की अदाएँ

बे-मौत किया क़त्ल उन अच्छों का बुरा हो

माशूक़ तरह-दार हो अंदाज़ हो अच्छा

दिल आए न ऐसे पे तो फिर दिल का बुरा हो

पूरा कोई होता नज़र आता नहीं अरमाँ

उन को तो ये ज़िद है कि हमारा ही कहा हो

तुम मुझ को पिलाते तो हो मय सीना पे चढ़ कर

उस वक़्त अगर कोई चला आए तो क्या हो

वा'दा वो तुम्हारा है कि लब तक नहीं आता

मतलब ये हमारा है कि बातों में अदा हो

ख़ंजर की ज़रूरत है न शमशीर की हाजत

तिरछी सी नज़र हो कोई बाँकी सी अदा हो

ख़ाली तो न जाएँ दम-ए-रुख़्सत मिरे नाले

फ़ित्ना कोई उट्ठे जो क़यामत न बपा हो

चोरी की तो कुछ बात नहीं मुझ को बता दो

मेरा दिल-ए-बेताब अगर तुम ने लिया हो

उन से दम-ए-रफ़्तार ये कहती है क़यामत

फ़ित्ने से न ख़ाली कोई नक़्श-ए-कफ़-ए-पा हो

बद-ज़न हैं वो इस तरह कि सुर्मा उसे समझें

बीमार की आँखों में अगर नील ढला हो

ख़त खोल के पढ़ते हुए डरता हूँ किसी का

लिपटी हुई ख़त में न कहीं मेरी क़ज़ा हो

मरना है उसी का जो तुझे देख के मर जाए

जीना है उसी का जो मोहब्बत में जिया हो

है दिल की जगह सीने में काविश अभी बाक़ी

पैकाँ कोई पहलू में मिरे रह न गया हो

मुझ को भी कहीं और से आया है बुलावा

अच्छा है चलो आज भी वा'दा न वफ़ा हो

'बेख़ुद' का फ़साना तो है मशहूर-ए-ज़माना

ये ज़िक्र तो शायद कभी तुम ने भी सुना हो

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