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बनी थी दिल पे कुछ ऐसी की इज़्तिराब न था - बेख़ुद देहलवी कविता - Darsaal

बनी थी दिल पे कुछ ऐसी की इज़्तिराब न था

बनी थी दिल पे कुछ ऐसी की इज़्तिराब न था

ग़शी को आप ने समझा था ख़्वाब ख़्वाब न था

ये हुस्न-ए-ज़न है कि 'बेख़ुद' कभी ख़राब न था

कसर थी इतनी कि आलूदा-ए-शराब न था

हमारी आँख से तुम देखते तो खुल जाता

कि आईने में भी इस शक्ल का जवाब न था

हज़ारों इस दिल-ए-बे-आरज़ू ने ढाए सितम

भले को और मिरे साथ कुछ अज़ाब न था

मुझे ये रश्क कि दुश्मन का ज़िक्र क्यूँ आए

उन्हें ये नाज़ मिरी बात का जवाब न था

ये बुत समझते थे 'बेख़ुद' को बार-ए-ख़ातिर क्यूँ

किसी के दिल में तो वो ख़ानुमाँ-ख़राब न था

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